Tuesday, September 21, 2010

जलते हुए शहर में ..

कागज़ पर गिरते ही फूटे लफ्ज़ कई
कुछ धुंआ उठा .. चिंगारियां कुछ
इक नज़म में फिर से आग लगी !
जलते शहर में बैठा शायर
... इससे ज़्यादा करे भी क्या ?

लफ़्ज़ों से आग नहीं बुझती
नज्मों से ज़ख्म नहीं भरते !!


-चाचा गुलज़ार

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