Sunday, June 19, 2011

कुछ लम्हे कभी गुज़रते नहीं ..

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं lawn में अब तक
न वो पुराने हुए हैं
न उनका रंग उतरा

कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलाइची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ

फकीरा अब भी वहीं मेरी coffee देता है
गिलहरियों को बुला कर खिलाता हूँ biscuit
गिलहरियों मुझे शक की नज़र से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस जानती होंगी….

कभी कभी जब उतरती है Chill शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर lawn में रुक कर
सफेद और गुलाबी मुसुन्ढ़े के पौधों में घुलने लगती है
के जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाये whisky में

मैं scarf दिन का गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन के अब भी मैं
तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं lawn में अब तक
न वो पुराने हुए हैं
न उन का रंग उतरा…
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
-:चाचा गुलज़ार


No comments: