Wednesday, October 09, 2013

इंतज़ार

मै अपने कारोबार के सिलसिले में
कभी कभी उसके शहर जाता हूँ ,
तो गुज़रता हूँ  उस गली से ,
वो नीम तारीक़ से गली
और उसके नुक्कड़ पे ऊँघता सा पुराना  एक रौशनी का खम्भा

उसी के नीचे तमाम शब  इंतज़ार करके
मै छोड़ आया था  , शहर उसका ..

बहुत ही खस्ता सी रौशनी की छड़ी को टेके
वो खम्भा आज भी वहीं खड़ा है

फ़ितूर है ये
मगर मै  खम्भे के पास जाकर
नज़र बचा के मोहल्ले वालों  की
पूछ लेता हूँ , आज भी ये

वो मेरे जाने के बाद आई तो नहीं थी ?
वो आयी थी क्या ???


:गुलज़ार 

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