Tuesday, October 29, 2013

मौसम का झोंका

किसी मौसम का झोंका था
जो इस दीवार पे लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है

गए सावन में ये दीवारें सीली नहीं थीं ,
न जाने क्यूँ
इस दफा इसमें सीलन आ गयी है ,
दरारें पड़ गयी हैं ,
और सीलन इस तरह बहती है
जैसे खुश्क रुखसारों पे गीले आंसू चलते हैं

हवा की साँस क्यूँ सहमी हुई है ,
मेरे वाकिफ़ की थी , जब आती थी मेरे कमरे में ,
मेरे सीने में भर जाती थी , जैसे बादवां भरते है कश्ती के .

ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुडेरों पे
ये घर की खिडकियों के कांच पे ऊँगली से लिख जाती थी संदेशे
बिलखती रहती है बैठी  हुई अब बंद रोशनदान के पीछे

दोपहरें ऐसी लगती हैं , बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी  , और न कोई चाल चलता है
न दिन होता है और न अब रात होती है ,सभी कुछ रुक गया है

वो क्या  मौसम का झोंका था ......
जो इस दीवार पे लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है .

: गुलज़ार ( Film : Raincoat )

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