Wednesday, September 17, 2014

तसव्वुर-ए-जाना

बंद शीशे के परे देख, दरीचों के उधर
सब्ज़ पेड़ों पे , घनी शाखों पे , फूलों पे वहाँ
कैसे चुपचाप बरसता है  ,  मुसलसल पानी

कितनी आवाज़ें हैं , ये लोग हैं, बातें हैं   मगर ..
ज़हन के पीछे  ,  किसी और ही सतह पे कहीं 
जैसे चुपचाप  , बरसता है तसव्वुर तेरा. 

: गुलज़ार 

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