Friday, February 22, 2008

KAB AATE HO

ना आमद की आहट और ना जाने की टोह मिलती है
कब आते हो कब जाते हो
इमली का ये पेड़ हवा में हिलता है
तो ईंटों की दीवार पे परछाई का छींटा पड़ता है
और जज्ब हो जाता है जैसे
सूखी मिटटी पे कोई पानी के कतरे फेंक गया हो
धीरे-धीरे आँगन में फिर धूप सिसकती रहती है
कब आते हो कब जाते हो ..
बंद कमरे में जब कभी दिए की लौ हिल जाती है
तो एक बड़ा सा साया मुझको घूँट-घूँट पीने लगता है
आंखें मुझ से दूर बैठ के मुझको देखती रहती हैं
कब आते हो कब जाते हो
दिन में कितनी बार मुझे तुम याद आते

--- चाचा गुलज़ार