ना आमद की आहट और ना जाने की टोह मिलती है
कब आते हो कब जाते हो
इमली का ये पेड़ हवा में हिलता है
तो ईंटों की दीवार पे परछाई का छींटा पड़ता है
और जज्ब हो जाता है जैसे
सूखी मिटटी पे कोई पानी के कतरे फेंक गया हो
धीरे-धीरे आँगन में फिर धूप सिसकती रहती है
कब आते हो कब जाते हो ..
बंद कमरे में जब कभी दिए की लौ हिल जाती है
तो एक बड़ा सा साया मुझको घूँट-घूँट पीने लगता है
आंखें मुझ से दूर बैठ के मुझको देखती रहती हैं
कब आते हो कब जाते हो
दिन में कितनी बार मुझे तुम याद आते
--- चाचा गुलज़ार
1 comment:
gud yaar
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