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किताबें झांकती हैं , बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नही होती
जो शामें इनकी सुहबत मैं कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है
कोई सफहा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के माने गिर भी पड़ते हैं
जो रिश्ते वोह सुनाती थें वो सारे उधड़े- उधड़े हैं
और वो जो किताबों में , मिला करते थे सूखे फूल
किताबें मांगने , गिराने , उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
न जाने उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !
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