Sunday, October 12, 2014

ग़ालिब

गली क़ासिम में आकर ,
तुम्हारी ड्योढ़ी पे रुक गया हूँ मिर्ज़ा नौशा
तुम्हे आवाज़ दूँ , पहले ,
चली जाएँ ज़रा , परदे में उमराव , तो फिर अंदर कदम रखूँ

चिलमची लोटा सैनी उठ गए हैं
बरसता था जो दो घंटे को मेह
छत चार घंटे तक बरसती थी
उसी छलनी सी छत की , अब मरम्मत हो रही है

सदी से कुछ ज्यादा वक़्त आने में लगा , अफ़सोस है मुझको
असल में घर के बहार कोयलों के टाल की स्याही लगी थी , वह मिटानी थी
उसी में बस , कई सरकारें बदली है , तुम्हारे घर पहुँचने में

जहाँ कल्लन को ले के बैठते थे , याद है बलाई मंज़िल पर
लिफ़ाफ़े जोड़ते थे तुम लेई से ,
ख़तों की कश्तियों में , उर्दू बहती थी
अछूते साहिल , उर्दू नस्र छूने लग गयी थी

वहीं बैठेगा कंप्यूटर
वहीं से लाखों ख़त भेजा करेगा
तुम्हारे दस्त-ख़त जैसे वो खुश ख़त तो नहीं होंगे , मगर फिर भी
परस्तारों की गिनती भी , असद अब तो करोड़ों है

तुम्हारे हाथ के लिखे सफ़हात रखे जा रहे हैं
तुम्हे तो याद होगा
मसवदा , जब रामपुर से , लखनऊ से , आगरा तक घूमा करता था
शिकायत थी तुम्हे -
"यार अब न समझे हैं , न समझेंगे ,वो मेरी बात
उन्हें दिल और दे , या मुझको जबाँ और ..

ज़माना हर जुबाँ में पढ़ रहा ,
अब तुम्हारे सब सुख़न ग़ालिब
समझते कितना हैं …
ये तो वो ही समझें , या तुम समझो

यहीं शीशों में लगवाए गए हैं …
पैराहन , अब कुछ तुम्हारे .
ज़रा सोचो तो , किस्मत , चार गिरह कपड़े की , अब ग़ालिब
की थी किस्मत , ये उस कपड़े की , ग़ालिब का गिरेबां था …

तुम्हारी टोपी रखी है
जो अपने दौर से ऊंची पहनते थे
तुम्हारे जूते रखे हैं
जिन्हे तुम हाथ में लेकर निकलते थे
शिकायत थी कि
"सारे घर को ही मस्जिद बना रखा है बेग़म ने "

तुम्हारा बुत भी लगवा दिया है
ऊँचा कद दे कर
जहाँ से देखते हो , अब तो
सब बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल लगता है

सभी कुछ है मगर नौशा
अगरचे जानता हूँ ,
हाथ में जुम्बिश नहीं बुत के …
तुम्हारे सामने एक साग़र-ओ-मीना तो रख देते

बस एक आवाज़ है
जो गूँजती रहती हैअब घर में
"न था कुछ तो ख़ुदा था , कुछ न होता, तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने , न मै होता तो क्या होता "


: गुलज़ार


1 comment:

Sameer Mahoolkar said...

Wonderful share! Just one correction;
अछूते साहिल, उर्दू "नस्र" छूने लग गयी थी
It will be Nasr and not nasl.
Regards.