सर ! मुझे पहचाना क्या?
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए
और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा,
फिर हँसा, और बोला , ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं,
मेहमान हो कर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाचीं
खाली हाथ अब जातीं कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई,
चूल्हा बुझा,
जो था , नहीं था, सब गया!
प्रसाद में पलकों के नीचे
चार क़तरे रख गई हैं , पानी के !
मेरी औरत और मैं,
सर, लड़ रहे हैं ,
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूं!
जेब की जानिब गया था हाथ,
कि हँस कर उठा वो...
'न न', न पैसे नहीं सर,
यूंही अकेला लग रहा था
घर ही तो टूटा , रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी
हाथ रखिये पीठ पर ,
और इतना कहिये कि - लड़ो
... बस!"
- Translated by Gulzar
Original Poem by Kusumagraj ( Marathi )
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