कहाँ इतनी फुर्सत है अब चाँद के पास भी
बस थोड़ी देर को देखता है अब उस रोशन खिड़की को .
और फिर उस ऊँची ईमारत के पार
किसी और खिड़की से आँखे चार करने चला जाता है ..
मेरे कुछ सवाल हैं, जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूँगा तुमसे क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम
मैं जानना चाहता हूँ क्या उसके साथ चलते हुए , शाम को यूं ही बेख़याली में हाथ टकरा जाता है तुम्हारा ? क्या अपनी छोटी अँगुलियों से हाथ थाम लिया करती हो क्या वैसे ही, जैसे मेरा थामा करती थीं ?
क्या बता दी सारी बचपन की कहानियां तुमने उसे जैसे मुझे रात भर बैठ कर सुनाईं थी तुमने क्या तुमने बताया उसको कि तीस के आगे की हिंदी की गिनती आती नहीं है तुम्हे
वो सारी पापा और छोटी बहन के साथ वाली तस्वीरें जिनमे तुम बड़ी प्यारी लगती थी क्या उसे भी दिखा दीं तुमने
ये कुछ सवाल हैं जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूँगा तुमसे.. क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम
मैं पूछना चाहता हूँ की वो भी जब घर छोड़ने आता है तुमको तो सीढ़ियों पर आँखे मींचकर क्या मेरी ही तरह उसके सामने भी माथा आगे कर देती हो वैसे ही जैसे मेरे सामने करती थीं
सर्द रातों में, बंद कमरो में तुम्हारी पीठ पर क्या वो भी मेरी तरह अपनी उंगलियो से हर्फ़ दर हर्फ़ अपना नाम गोदता है तुम भी अक्षर दर अक्षर उसे पहचानने की कोशिश करती हो क्या वैसे ही जैसे मेरे साथ किया करती थीं ? ये कुछ सवाल हैं जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूँगा तुमसे क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके , इस लायक नहीं हो तुम
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती गद्दारी, लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है पर सबसे ख़तरनाक नहीं होती कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढ़ना मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना ना होना तड़प का सब कुछ सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौट कर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना सबसे खतरनाक वो आँखें होती है जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है.. जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है जो चीज़ों से उठती अन्धेपन कि भाप पर ढुलक जाती है जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा आपके ज़िस्म के पूरब में चुभ जाए
"चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है" अगर आप मेरे इस ब्लॉग पर आये हैं तो मै ये मान की चलता हूँ की आपने न सिर्फ ये ग़ज़ल सुनी होगी बल्कि आपको पसंद भी होगी , ग़ुलाम अली साहब की गयी सबसे मशहूर ग़ज़ल है शायर का नाम है #हसरतमोहानी , ग़ुलाम अली साहब ने जितने शेर रिकॉर्ड करवाए हैं वही सुने गए , उसमे भी कुछ समझ आयी कुछ नहीं (आपका पता नहीं पर मेरा यही हाल था ) आज ग़ुलाम अली की नहीं हसरत मोहानी पूरी ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ मायने के साथ - ****************************************************************************** चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़ तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है
मुझको इतने से काम पे रख लो …
जब भी सीने पे झूलता लाकेट
उलटा हो जाये , तो मै हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको
मुझको इतने से काम पे रख लो …
जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुरा के बस इतना कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो …
जब ग़रारे में पांव फंस जाये
या दुपट्टा किवाड़ से अटके
एक नज़र देख तो काफी है
मुझको इतने से काम पे रख लो …
#गुलज़ार
(आवेज़ा = Ear Ring )
मैं नीचे चलके रहता हूं
जमीं के पास ही रहने दो मुझे
घर से उठाने में बड़ी आसानी होगी
बहुत ही तंग हैं ये सीढ़ियां और ग्यारहवीं मंजिल
दबाव पानी का भी पांचवीं मंजिल तक मुश्किल से जाता है
मुझे तुम लिफ्ट से लटकाके नीचे लाओगे
यह सोच के अच्छा नहीं लगता
मैं नीचे चलके रहता हूं
वगरना सीढ़ियों से दोहरा करके उतारोगे
वो क्रिश्चियन पादरी जो सातवीं मंजिल पर रहता है
हिकारत से मुझे देखेगा, ‘गो टू हेल’ कहेगा
मुझे वो जिंदगी में भी यही कहता रहा है
यहां कुछ लोग हैं ऐसे
मैं उनके सामने जाने से बच जाऊं तो अच्छा है
वो मिश्रा मास्टर जिसको दमा है
खांस कर पांव से दरवाजा ठेलेगा
झिर्री से झांकेगा
फिर भी कोई एक श्लोक पढ़ देगा
‘तुरुप और सात सर’
पीपल के नीचे बैठकर
जब खेला करता था
वो बड़ी बेमंटी करता था
मगर बेला बहुत ही खूबसूरत थी
वो मिश्रा अब अकेला है
बहुत समझाया बाजी खत्म हो जाए तो
पत्ते फिर से बंटते हैं
मुझे कंपाउंड में पीपल के नीचे मत लिटाना
परिंदे बीट करते हैं
कि जीते जी तो जो भी हो
मरे को पाक रखते हैं
#Gulzar #गुलज़ार
बस एक ही सुर में , एक ही लय पे , सुबह से देख …
देख ,कैसे बरस रहा है उदास पानी
फुहार के मलमली दुपट्टे से उड़ रहे हैं
तमाम मौसम टपक रहा है
तमाम कायनात रिस रही है
हर एक शै भीग भीग कर देख कैसी बोझिल सी हो गयी है
दिमाग की गीली गीली सोचों से भीगी भीगी उदास यादें टपक रही हैं
थके थके से बदन में बस धीरे धीरे सासों का गर्म लोबान जल रहा है
#Gulzar #गुलज़ार
बहुत से हाथ उतरने लगे हैं कंधो पर
बहुत सी उंगलियाँ जुड़ने लगी हैं हाथो में
सलाम करते हैं वह लोग छू के माथे को
"वलाम" कहते थे जो सर की एक जुम्बिश से
हंसी की राल टपकती है लोगो के मुँह से
ख़ुलूस-ओ-शौक हठीली पे रख के लाते हैं
बड़े तपाक से मिलते हैं , मिलने वाले मुझे
हुई है तुझसे जो निस्बत , उसी का सदका है
वगरना …
वगरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
#Gulzar #गुलज़ार
स्कूल से लौटते हुए रस्ते में देखा प्यारे प्यारे पिल्ले खेल रहे हैं , बस फिर क्या था पहले थोड़ी देर खेले उनके साथ फिर उनमे से एक को घर ले आये , अब अम्मा देख लेती तो कुटाई हो जाती , इसलिए घर के बाहर की तरफ केले के पेड़ो झुरमुट में बोरा बिछा के उसका छोटा सा घर बना दिया , चारो भाई बहन सुबह शाम मिलने वाले दूध में से बचा के उस पिल्ले को पालने लगे , मोहल्ले के दुसरे बच्चे भी अपने बिस्कुट , डबलरोटी उसके लिए लाने लगे , 'छोटी' ने नाम भी रख दिया था कुछ , अब तो याद भी नहीं ।
बमुश्किल एक हफ्ता गुज़रा था कि पड़ोस के मिंटू की मम्मी ने उसको डब्बे से बिस्कुट चुराते पकड़ लिया , उसकी कुटाई हुई तो सारी कहानी उसकी अम्मा से होते हुए हमारी अम्मा तक आ गयी . अम्मा का मूड ठीक था शायद, इसलिए उसदिन हम कुटने से बच गए लेकिन फरमान जारी हुआ कि , जाओ जहाँ से उठा के लाए हो वहीं छोड़ के आओ , मरते क्या न करते गए , खुशकिस्मती से उस पिल्ले का परिवार अब भी स्कूल के पीछे वाले खँडहर में था , वहीं छोड़ आये उसको ,
लेकिन वापस आते समय दिल बड़ा दुखी हुआ . . लेकिन फिर धीरे धीरे भूल गए
कल अपनी कार बेच दी , जब पुरानी कार को , उसके नए मालिक के घर छोड़ के वापस आ रहे थे तो बड़ी याद आई उस मासूम से पिल्ले की , जिसका अब नाम भी याद नहीं
#anigam #PTCruiser
: Ashish Nigam
सर ! मुझे पहचाना क्या?
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए
और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा,
फिर हँसा, और बोला , ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं,
मेहमान हो कर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाचीं
खाली हाथ अब जातीं कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई,
चूल्हा बुझा,
जो था , नहीं था, सब गया!
प्रसाद में पलकों के नीचे
चार क़तरे रख गई हैं , पानी के !
मेरी औरत और मैं,
सर, लड़ रहे हैं ,
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूं!
जेब की जानिब गया था हाथ,
कि हँस कर उठा वो...
'न न', न पैसे नहीं सर,
यूंही अकेला लग रहा था
घर ही तो टूटा , रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी
हाथ रखिये पीठ पर ,
और इतना कहिये कि - लड़ो
... बस!"
- Translated by Gulzar
Original Poem by Kusumagraj ( Marathi )
पूनियांके एक खेत में उसकी माँ ने थोड़ी देर दरांती रोक के उसको जन्म दियाथा .
मजदूरों ने बारी बारी गोद में लेके , थोड़े थोड़े पैसों से कुछ शगुन दिया था
तभी से काम पे लगा हुआ है और कमाई करता है ,
भीख में अच्छे पैसे थे ,
हाथ पावों पे पट्टियाँ बांध कर माँ मंदिर के दरवाजे पे रख आती थी . बाप उठा के ले आता था .
अपने दूध के पैसे रोज़ कमा लेता था .
भीख मांग के बीडी पीना सीख लिया था
होटल पे बाहर वाले की चाय लेकर , ट्रक वालों को जाकर देना ,
पैसे दो पैसे की चोरी वहीं पे सीखी .
गिलास भी टूटे , कांच भी टूटे , तब जाकर सीखा था , साबुन और मिटटी से बर्तन कैसे मांजे जाते हैं
हाथ सफाई बाद में सीखी .
चोरी चकारी तो मामूली फ़न थे अब ,
हाथ सुपारी लेता है .
कानून के लम्बे हाथों के वोह नाखून काटता है ,
जुर्म की गन्दी गलियों में उसको दो-नालियां चलती हैं .
छोटा मोटा डान-वान कहलाता है .
Self -Made है कहता है.
भूल गया ये बनने में कितने लोगों के हाथ लगे हैं .
पूरे एक समाज के सिस्टम ने मिलकर कोशिश की थी
तब जाकर ये DON बना है
: Gulzar
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं अपने चेहरों की , हसरतों ने
कि शौक़ पहचनता ही नहीं मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर
जब कट फट जाये या उधड़ जाये कोई रिश्ता
एक नए रिश्ते की जिल्द चढ़ा लेता हूँ
फटी हुए जिल्द की उधड़न से
रिस -रिस के जो बाहर आ जाता है वजूद मेरा
बस उतना ही छू पाती है ये नयी जिल्द मुझको
रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ
गानों की कीमत मांगता हूँ -
सब नज़्में आँख चुराती हैं
और करवट लेकर शे'र मिरे
मुँह ढांप लिया करते हैं सब
वो शर्मिंदा होते हैं मुझसे
और मै लजाता हूँ .
बिकने वाली चीज़ नहीं पर
सोना भी तुलता है तोले-माशों में
और हीरे भी 'कैरट' से तोले जाते हैं
मै तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था
जो मै अपनी उम्र अधेड़ के , साँसे तोड़ के देता हूँ नज़्में क्यों नाराज़ होती हैं
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ़्ज़ों का जुबां पर
कि जैसे पान में महंगा किमाम घुलता है
ये कैसा इश्क़ है उर्दू जुबां का
नशा आता है उर्दू बोलने में
गिलौरी की तरह है , मुँह लगी सब इस्तेलाहें , लुत्फ़ देती हैं हलक़ छूती है उर्दू तो , हलक़ से जैसे मय का घूँट उतरता है
बड़ी "aristocracy " ज़बां में ,
फ़क़ीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू
अगरचे मानी कम होते हैं उर्दू में , अल्फ़ाज़ की यहाँ इफ़रात होती है
मगर फिर बुलंद आवाज़ में पढिए , तो बहुत ही मोतबर लगती है बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है की दिन जाडों के हैं , खिड़की खुली है , धूप अंदर आ रही है
अजब है ये ज़बां उर्दू
कभी यूँ ही सफ़र करते , अगर कोई मुसाफ़िर शेर पढ़ दे मीर , ग़ालिब का
वो चाहे अजनबी हो , यही लगता है , वो मेरे वतन का है
बड़ी शाइस्ता लहज़े में , किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता , कि एक तहज़ीब की आवाज़ है उर्दू
मुश्किल ये है , आँख खुलने पे भी ख़्वाबों के चकत्ते नहीं जाते
आँख खुलती है , तो कुछ देर महक रहती है पलकों के तले
सूख जाते हैं , तो कुछ रोज़ में गिर जाते हैं, बासी होकर
ज़र्द से रेज़े हैं , उड़ते हैं फिर आँखों में महीनों !
मेरी आँखों से दरिया भी गुज़रते हैं मगर दाग़ लग जायें तो धुलते नहीं , ख़्वाबों के कभी!
गली क़ासिम में आकर ,
तुम्हारी ड्योढ़ी पे रुक गया हूँ मिर्ज़ा नौशा
तुम्हे आवाज़ दूँ , पहले ,
चली जाएँ ज़रा , परदे में उमराव , तो फिर अंदर कदम रखूँ
चिलमची लोटा सैनी उठ गए हैं
बरसता था जो दो घंटे को मेह
छत चार घंटे तक बरसती थी
उसी छलनी सी छत की , अब मरम्मत हो रही है
सदी से कुछ ज्यादा वक़्त आने में लगा ,
अफ़सोस है मुझको
असल में घर के बहार कोयलों के टाल की स्याही लगी थी , वह मिटानी थी
उसी में बस , कई सरकारें बदली है , तुम्हारे घर पहुँचने में
जहाँ कल्लन को ले के बैठते थे , याद है बलाई मंज़िल पर
लिफ़ाफ़े जोड़ते थे तुम लेई से ,
ख़तों की कश्तियों में , उर्दू बहती थी
अछूते साहिल , उर्दू नस्र छूने लग गयी थी
वहीं बैठेगा कंप्यूटर
वहीं से लाखों ख़त भेजा करेगा
तुम्हारे दस्त-ख़त जैसे वो खुश ख़त तो नहीं होंगे , मगर फिर भी
परस्तारों की गिनती भी , असद अब तो करोड़ों है
तुम्हारे हाथ के लिखे सफ़हात रखे जा रहे हैं
तुम्हे तो याद होगा
मसवदा , जब रामपुर से , लखनऊ से , आगरा तक घूमा करता था
शिकायत थी तुम्हे -
"यार अब न समझे हैं , न समझेंगे ,वो मेरी बात
उन्हें दिल और दे , या मुझको जबाँ और ..
ज़माना हर जुबाँ में पढ़ रहा ,
अब तुम्हारे सब सुख़न ग़ालिब
समझते कितना हैं …
ये तो वो ही समझें , या तुम समझो
यहीं शीशों में लगवाए गए हैं …
पैराहन , अब कुछ तुम्हारे .
ज़रा सोचो तो , किस्मत , चार गिरह कपड़े की , अब ग़ालिब
की थी किस्मत , ये उस कपड़े की , ग़ालिब का गिरेबां था …
तुम्हारी टोपी रखी है
जो अपने दौर से ऊंची पहनते थे
तुम्हारे जूते रखे हैं
जिन्हे तुम हाथ में लेकर निकलते थे
शिकायत थी कि
"सारे घर को ही मस्जिद बना रखा है बेग़म ने "
तुम्हारा बुत भी लगवा दिया है
ऊँचा कद दे कर
जहाँ से देखते हो , अब तो
सब बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल लगता है
सभी कुछ है मगर नौशा
अगरचे जानता हूँ , हाथ में जुम्बिश नहीं बुत के … तुम्हारे सामने एक साग़र-ओ-मीना तो रख देते
बस एक आवाज़ है
जो गूँजती रहती हैअब घर में
"न था कुछ तो ख़ुदा था , कुछ न होता, तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने , न मै होता तो क्या होता "
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी च्युंटियां नहीं देखी मैने
अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोई चीटीं नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं,
गर कोइ क़तार उनकी नज़र आये
तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं कोई भंवरा मगर देखा नहीं , भंवराये उन पर
तुम्हारे यहाँ तो दीवारों में सीलन भी नहीं है दरारें ही नहीं पड़ती हमारे यहाँ तो दस दिन के लिए परनाला गिरता है तो उस दीवार से पीपल की डाली फूट पड़ती है गरीबी की मुझे आदत पड़ी है , या मै तुम पर रश्क़ करता हूँ तुम्हारे शहर की नकलें हमारे यहाँ महानगरों में होने लगी हैं मगर कमबख़्त आबादी बड़ी बरसाती होती है यहाँ न्यूयॉर्क में कीड़े-मकोड़ो की कभी नस्लें नहीं बढ़तीं सड़क पे गर्द भी उड़ती नहीं देखी मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं
मालिकों में विवाद हुआ ,
तो कंपनी के टुकड़े हो गए
काम करने वाले इंसान भी ,
सामान की तरह बँट गए
जैसे भाइयों में जायदाद का बंटवारा हो
ये पीतल का लोटा
जिसमे पानी भर के
मै सिरहाने रखा करता था ,
रोज़ सोने से पहले
वापस ले लो ,
तुम्हारी शादी में
तुम्हारे ससुराल से आया था
ये थर्मस जिसे ,
कभी मै , कभी तुम ,
सफर में साथ ले जाते रहे उम्र भर
वो असल में मेरा है ,
मेरे बेटे ने दौड़ जीती थी ,
तब मिला था , इनाम में
ये पिताजी का छाता
जो हमने पैसे मिला के खरीदा था
उनके रिटायरमेंट वाले दिन
पांच रूपये , जो मैंने मिलाये थे
वो दे दो , छाता तुम्ही रख लो ,
मै क्या करूंगा इसका ..
ये जो दादाजी की तस्वीर है
इसके लिए क्या लड़ना
तुम्हारे कमरे में लगी थी
तुम्ही रख लो
मै ड्राइंग रूम वाली पेंटिंग
से काम चला लूँगा
जिन लोगों ने अपनी जवानी खर्च कर दी
इस कम्पनी को खड़ा करने में ,
एक साथ काम करते-करते
इसी को घर-परिवार समझने लगे आज पूछ रहे हैं , एक दूसरे से यार तुम किस के हिस्से में आये हो . .
मोड़ पे देखा है वो बूढा सा एक पेड़ कभी
मेरा वाकिफ़ है , बहुत सालों से उसको जानता हूँ
जब मै छोटा था तो एक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कन्धों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से पांव जा लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उसपे
मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गरम किया था उसने
और जब हामला थी बीबा , तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरह कैरियां फेंकी थी इसने
वक़्त के साथ सभी फूल सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती थी बीबा
हाँ उसी पेड़ से आया है तू , पेड़ का फल है
अब भी जल जाता हूँ जब मोड़ गुज़रते में कभी
खांस कर कहता है
क्यूँ सर के सभी बाल गए ?
सुबह से काट रहे है कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको ....
रूह देखी है , कभी रूह को मासूस किया है ?
जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपट कर
सांस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?
या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हों टलियां
सुबकियां लेती हवाओं के वोह बैन सुने हैं ?
चौदहवीं रात के बर्फाव से इस चाँद को जब
ढेर से साये पकड़ने के लिए भागते हैं
तुमने साहिल से लगे गिरजे कि दीवार से लगकर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है ?
जिस्म सौ बार जले , तब भी वही मिटटी का ढेला
रूह एक बार जलेगी तो वो कुंदन होगी
रात भी वैसे ही सर मूंदे आती है
दिन भी वैसे ही आँखें मलता जाता है
तारे सारी रात जम्हाइयां लेते हैं
सब कुछ वैसे ही चलता है , जैसे चलता था , जब तुम थीं ...
काश तुम्हारे जाने पर कुछ फर्क तो पड़ता जीने में.
प्यास न लगती पानी की
या नाखून बढ़ना बंद हो जाते
बाल हवा में न उड़ते
या धुवाँ निकलता साँसों से
सब कुछ वैसे ही चलता है …
बस इतना फर्क पड़ा है मेरी रातों में
नींद नहीं आती ,
तो अब सोने के लिए , एक नींद की गोली , रोज़ निगलनी पड़ती है ..
किसी मौसम का झोंका था
जो इस दीवार पे लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
गए सावन में ये दीवारें सीली नहीं थीं ,
न जाने क्यूँ
इस दफा इसमें सीलन आ गयी है ,
दरारें पड़ गयी हैं ,
और सीलन इस तरह बहती है
जैसे खुश्क रुखसारों पे गीले आंसू चलते हैं
हवा की साँस क्यूँ सहमी हुई है ,
मेरे वाकिफ़ की थी , जब आती थी मेरे कमरे में ,
मेरे सीने में भर जाती थी , जैसे बादवां भरते है कश्ती के .
ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुडेरों पे
ये घर की खिडकियों के कांच पे ऊँगली से लिख जाती थी संदेशे
बिलखती रहती है बैठी हुई अब बंद रोशनदान के पीछे
दोपहरें ऐसी लगती हैं , बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी , और न कोई चाल चलता है
न दिन होता है और न अब रात होती है ,सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झोंका था ...... जो इस दीवार पे लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है . : गुलज़ार ( Film : Raincoat )
मै अपने कारोबार के सिलसिले में
कभी कभी उसके शहर जाता हूँ ,
तो गुज़रता हूँ उस गली से ,
वो नीम तारीक़ से गली
और उसके नुक्कड़ पे ऊँघता सा पुराना एक रौशनी का खम्भा
उसी के नीचे तमाम शब इंतज़ार करके
मै छोड़ आया था , शहर उसका ..
बहुत ही खस्ता सी रौशनी की छड़ी को टेके
वो खम्भा आज भी वहीं खड़ा है
फ़ितूर है ये
मगर मै खम्भे के पास जाकर
नज़र बचा के मोहल्ले वालों की
पूछ लेता हूँ , आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद आई तो नहीं थी ? वो आयी थी क्या ???
जैसे झन्नाके चटख जाये किसी साज़ का तार
जैसे रेशम की किसी डोर से कट जाती है उँगली
ऐसे इक ज़र्ब-सी पड़ती है कहीं सीने में
खीचकर तोड़नी पड जाती है जब तुझसे नज़र
तेरे जाने की घडी सख्त होती घड़ी है
:Gulzar
तेरे उतारे हुए दिन टंगे हैं lawn में अब तक न वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी इलाइची के बहुत पास रखे पत्थर पर ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी coffee देता है गिलहरियों को बुला कर खिलाता हूँ biscuit गिलहरियों मुझे शक की नज़र से देखती हैं वो तेरे हाथों का मस जानती होंगी….
कभी कभी जब उतरती है Chill शाम की छत से थकी थकी सी ज़रा देर lawn में रुक कर सफेद और गुलाबी मुसुन्ढ़े के पौधों में घुलने लगती है के जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाये whisky में
मैं scarf दिन का गले से उतार देता हूँ तेरे उतारे हुए दिन पहन के अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन टंगे हैं lawn में अब तक न वो पुराने हुए हैं न उन का रंग उतरा… कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी -:चाचा गुलज़ार
होंठ हिलते हैं भिखारी के, सुनाई नहीं देता हाथ के लफ़ज़ उछलते हैं, वो कुछ बोल रहा है, थपथपाता है हर इक कार का शीशा आकर और उजलत में है ट्रैफ़िक के सिग्नल पे नज़र है!
चेंज है तो सही कौन इस गर्मी में अब कार का शीशा खोले, अगले सिगनल पे ही सही रोज़ कुछ देना ज़रूरी है, ख़ुदा राज़ी रहे!
भ्रमर कोई .. कुमुदिनी पे मचल बैठा तो हंगामा , हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा , अभी तक डूब के सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का , मै किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा ...
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं रात भी आई थी और चाँद भी था साँस भी वैसे ही चलती है हमेशा की तरह आँख वैसे ही झपकती है हमेशा की तरह थोड़ी सी भीगी हुई रहती है और कुछ भी नहीं
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं होठ खुश्क होते हैं और प्यास भी लगती है आज कल शाम से सर्द हवा चलती है खाक करने से धुआं उठता है जो दिल का नहीं तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं रात भी आई थी और चाँद भी था
Please Use IE6.0 or above as hindi fonts do not render properly in some other browsers किताबें झांकती हैं , बंद आलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नही होती जो शामें इनकी सुहबत मैं कटा करती थीं अब अक्सर गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के परदों पर बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है कोई सफहा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है कई लफ्जों के माने गिर भी पड़ते हैं जो रिश्ते वोह सुनाती थें वो सारे उधड़े- उधड़े हैं
और वो जो किताबों में , मिला करते थे सूखे फूल किताबें मांगने , गिराने , उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे न जाने उनका क्या होगा ? वोशायदअबनहींहोंगे !
एक सन्नाटा भरा हुआ था इस गुब्बारे से कमरे में , बासी था माहौल सारा तेरे फ़ोन की घंटी बजने से पहले . थोडी देर तो धड़का था , साँस हिली थी, नब्ज़ चली थी मायूसी की झिल्ली आंखों से उतरी थी , कुछ लम्हों को . . . फिर तेरी आवाज़ को आखिरी बार ' खुदा हाफिज़ 'कह कर जाते देखा था एक सन्नाटा भरा हुआ है जिस्म के इस गुब्बारे मे , तेरे आखिरी फ़ोन के बाद
ना आमद की आहट और ना जाने की टोह मिलती है कब आते हो कब जाते हो इमली का ये पेड़ हवा में हिलता है तो ईंटों की दीवार पे परछाई का छींटा पड़ता है और जज्ब हो जाता है जैसे सूखी मिटटी पे कोई पानी के कतरे फेंक गया हो धीरे-धीरे आँगन में फिर धूप सिसकती रहती है कब आते हो कब जाते हो .. बंद कमरे में जब कभी दिए की लौ हिल जाती है तो एक बड़ा सा साया मुझको घूँट-घूँट पीने लगता है आंखें मुझ से दूर बैठ के मुझको देखती रहती हैं कब आते हो कब जाते हो दिन में कितनी बार मुझे तुम याद आते --- चाचा गुलज़ार
उड़ के जाते हुए पंछी ने , बस इतना देखा था ...........
देर तक हाथ हिलती रही एक शाख़ हवा मे .. अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी ????---------------------------
भुला सका ना मै वो सिलसिला ..... जो था ही नही वो एक ख्याल ..... जो आवाज़ तक गया ही नही वो एक बात ..... जो मै कह नही सका तुमसे वो एक रब्त ..... जो हममें कभी रहा ही नही
दर्द कुछ देर ही रहता है ,, बहुत देर नही .. जैसे शाख़ से टूटे हुए एक पत्ते का रंग .. मांद (Dim) पड़ जाता है .... कुछ रोज़ अलग शाख़ से रहकर शाख़ से टूट के ये दर्द जियेगा कब तक ख़त्म हो जायेगी जब इसकी रसद ( fueL) टिमटिमायेगा ज़रा देर को बुझते -बुझते और फ़िर लम्बी सी एक साँस ,, धुवें ( Smoke ) की लेकर ख़त्म हो जाएगा ये दर्द भी बुझ जाएगा दर्द कुछ देर ही रहता है .... बहुत देर नही ..
ऐसे बिखरे हैं रात दिन जैसे ... मोतियों वाला हार टूट गया तुमने मुझको पिरो के रखा था तुम्हारे ग़म की डली उठा कर जुबान पे रख ली है देखो मैंने ये कतरा कतरा पिघल रही है मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँ
When gulli-danda and kanche (marbles) were more popular than cricket ..
When we always had friends to play aais-paais (I Spy),chhepan-chhepai and pitthoo anytime .
When we desperately waited for 'yeh jo hai jindagi' ..When chitrahaar, vikram-baitaal, dada daadi ki kahaniyaan were so fulfilling .
When there was just one tv in every five houses ..
When bisleris were not sold in the trains and we were worrying if papas will get back into the train in time or not when they were getting down at stations to fill up the water-bottle ..
When we were going to bed by 9.00pm sharp except for the 'yeh jo hai jindagi' day ..
When Holis & Diwalis meant mostly hand-made pakwaans and sweets and moms seeking our help while preparing them .
When Maths teachers were not worried of our mummys and papas while slapping/beating us ..
When we were exchanging comics and stamps and chacha-chaudaris and billu were our heroes ...
When we were in nanihaals every summer and loved flying kites and plucking and eating unripe mangoes and leechis ..
When one movie every Sunday evening on television was more than asked for and 'ek do teen chaar' and 'Rajni' inspired us .
When 50 paisa meant at least 10 toffees ...
When left over pages of the last years notebooks were used for rough work or even fair work .
When 'chelpark' and 'natraaj' were encouraged against 'reynolds and family' ..
When the first rain meant getting drenched and playing in water and mud and making 'kaagaj ki kishtis' ...
When there were no phones to tell friends that we will be at their homes at six in the evening .
When our parents always had 15 paise blue colored 'antardesis' and 5paise machli wale stamps at home
When we were not seeing patakhes on Diwalis and gulaals on Holis as air and noise polluting or allergic agents ...
The list can be endless ..on the serious note I would like to summarise with .
When we were using our hearts more than our brains, even for scientifically brainy activities like 'thinking' and 'deciding' .
When we were crying and laughing more often, more openly and more sincerily .
When we were enjoying our present more than worrying about our future .
When being emotional was not synonymous to being weak .
When sharing worries and happinesses didnt mean getting vulnerable to the listener .
When blacks and whites were the favourite colors instead of greys .
When journeys also were important and not just the destinations .
When life was a passenger's sleeper giving enough time and opportunityto enjoy the sceneries from its open and transparent glass windows instead of some superfast's second ac with its curtained, closed anddark windows ...
It was long back in 2002 when i was on a official tour to a sugar mill .. i got a SundayTimes Page : Article : Mind over matter in my guest house room .. probably something came warapped in it .. I Read this Touching story there and cried alot .. all alone in my room for about an hour .. many of you might have read this story in news paper or may be on internet .. as that article said that this was found on inernet .. but still i am putting it up here .. as i found it most touching story i have read in my life ..
He almost didn't see the old lady, standing on the side of the road but even in the dim light of day, he could see she needed help. So he pulled up in front of her Mercedes and got out. His Pontiac was still sputtering when he approached her. Even with the smile on his face, she was worried. No one had stopped to help for the last hour or so ....was he going to hurt her ? He didn't look safe , he looked poor and hungry. He could see that she was frightened, standing out there in the cold. He knew how she felt. It was that chill which only fear can put in you. He said, "I'm here to help you, ma'am.Why don't you wait in the car where it's warm? By the way, my name is Bryan." Well, all she had was a flat tire, but for an old lady, that was bad enough. Bryan crawled under the car looking for a place to put the jack, skinning his knuckles a time or two. Soon he was able to change the tire.But he had to get dirty and his hands hurt. As he was tightening up the lug nuts, she rolled down the window and began to talk to him.She told him that she was from St. Louisand was only just passing through. She couldn't thank him enough for coming to her aid. Bryan just smiled as he closed her trunk.. She asked him how much she owed him. Any amount would have been all right with her. She already imagined all the awful things thatcould have happened had he not stopped. Bryan never thought twice about being paid. This was not a job to him. This was helping someone in need,and God knows there were plenty who had given him a hand in the past. He had lived his whole life that way, and it never occurred to him to act any other way. He told her that if she really wanted to pay him back, the next time she saw someone who needed help, she could give that person the assistance they needed, and Bryan added, "And think of me. " He waited until she started her car and drove off. It had been a cold and depressing day,but he felt good as he headed for home,disappearing into the twilight. A few miles down the road the lady saw a small cafe. She went in to grab a bite to eat, and take the chill off before she made the last leg of her trip home. It was a dingy looking restaurant. Outside were two old gas pumps. The whole scene was unfamiliar to her.The cash register was like the telephone of an out-of-work actor-it didn't ring much.The waitress came over and brought a clean towel to wipe her wet hair. She had a sweet smile, one that even being on her feet for the whole day couldn't erase.The lady noticed the waitress was nearly eight months pregnant, but she never let the strain and aches change her attitude.The old lady wondered how someone who had so little could be so giving to a stranger. Then she remembered Bryan. After the lady finished her meal, and the waitress went to get change for her hundred dollar bill, the lady slipped right out the door. She was gone by the time the waitress came back. The waitress wondered where the lady could be. Then she noticed something written on the napkin under which were four $100 bills.There were tears in her eyes when she read what the lady wrote:"You don't owe me anything. I have been there too. Somebody once helped me out, the way I'm helping you. If you really want to pay me back, here is what you do: Do not let this chain of love end with you." Well, there were tables to clear, sugar bowls to fill, and people to serve, but the waitress made it through another day.That night when she got home from work and climbed into bed, she was thinking about the money and what the lady had written. How could the lady have known how much she and her husband needed it? With the baby due next month, it was going to be hard. She knew how worried her husband was, and as he lay sleeping next to her, she gave him a soft kiss and whispered soft and low, "Everything's gonna be all right. I love you, Bryan." There is an old saying "What goes around comes around."
All i wanna say here is that PLEASE DONT LET THIS CHAIN OF LOVE BREAK WITH YOU .. LETS MAKE THIS WORLD A BETTER PLACE TO LIVE ..
मुझे खर्ची मे पूरा एक दिन रोज़ मिलता है मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है झपट लेता है अंटी से कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की आहट भी नही होती .. खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ गरेबान से पकड़ के मांगने वाले भी मिलते हैं " तेरी गुज़री हुई पुश्तोँ का कर्ज़ है तुझे किश्तें चुकानी हैं " ज़बरदस्ती कोई गिरवी भी रख लेता है , ये कह कर अभी 2 - 4 लम्हे खर्च के लिए रख ले बाकी उमर के खाते मे लिख देते हैं जब होगा , हिसाब होगा . बड़ी हसरत हैं , पूरा एक दिन एक बार अपने लिए रख लूँ तुम्हारे साथ एक पूरा दिन बस ... ......खर्च करने की तमन्ना है